मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम को कौन नहीं जानता वो अपने पंजाबी और हिंदी साहित्य के लिए विश्व भर में प्रसिद्द हैं। उनके मशहूर उपन्यास “अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ ” ने उन्हें साहित्य की दुनिया में एक विशेष पहचान दिलाई, साथ ही उनके “पिंजर” पे तो बॉलीवुड में कई फिल्में भी बनी।
अमृता प्रीतम के 100वे जन्मदिन को गूगल ने एक खास डूडल बना कर उन्हें याद किया। इसमें एक महिला की तस्वीर है जो की काले गुलाबों के पास बैठी कुछ लिख रही है। यह डूडल अमृता प्रीतम के जीवन पर आधारित उनकी चर्चित ऑटोबायोग्राफी “ब्लैक रोजेज” की ओर इशारा करता है।
अमृता प्रीतम और उनकी महत्वपूर्ण कृतियां
अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त 1919 में गुजरांवाला (पंजाब) जोकि अब पाकिस्तान में स्थित है, में हुआ था। बचपन से ही साहित्य लेखन में रूचि रखने वाली अमृता ने कम उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। उनका पहला संकलन 16 वर्ष की उम्र में ही प्रकाशित हुआ। अमृता ने अपने जीवन में 28 उपन्यास लिखे, जिसमें उनका एक उपन्यास “पिंजर” और “अज्ज आखाँ वारिस शाह नूँ” काफी लोगों की पसंद बन चुका है। ” अज्ज आखा वारिस शाह नूं में साल 1947 में हुए भारत-पाकिस्तान की एक कहानी का चित्रण किया गया है। उनके उपन्यास पिंजर में भी भारत-पाकिस्तान के बंटवारे की एक कहानी है। इस उपन्यास पर 2002 में एक इसी नाम पर फिल्म भी बानी है।
अमृता भारत-पाकिस्तान के विभाजन के बाद पाकिस्तान चली गईं थीं। पंजाबी भाषा में अपनी लेखनी की छाप छोड़ने के साथ साथ उन्होंने उर्दू और हिंदी में भी खूबसूरत लेख लिखें हैं। जिनको आज भी साहित्य में रूचि रखने वाले लोग पढ़ते जरूर हैं। उन्होंने एक आत्मकथा भी लिखी है – “काला गुलाब”.
उनकी इस आत्मकथा में आपको उनके जीवन से जुड़े कई अनोखे अनुभव मिलेंगे। साथ ही, इस आत्मकथा में उन्होंने महिलाओं के लिए प्रेम और विवाह जैसे मामलों पर खुलकर अपनी बात कहने और सुनने के लिए प्रेरणा स्त्रोत का काम किया है।
अमृता प्रीतम ने ऑल इंडिया रेडियो के लिए भी काम किया था और एक लिटरेरी जर्नल “नागमणि” का भी संपादन किया है। प्रीतम का लेखनी में करियर करीब 6 दशक चला और इस लेखनी के अद्भुत सफर में उन्हें कई बार सम्मानित भी किया गया। साल 1981 में उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ और साल 2005 में भारत के सर्वोच्च नागरिक होने का सम्मान भी दिया गया।
पढ़िए उनकी एक कविता
एक मुलाकात
कई बरसों के बाद अचानक एक मुलाकात
हम दोनों के प्राण एक नज्म की तरह काँपे ..
सामने एक पूरी रात थी
पर आधी नज़्म एक कोने में सिमटी रही
और आधी नज़्म एक कोने में बैठी रही
फिर सुबह सवेरे
हम काग़ज़ के फटे हुए टुकड़ों की तरह मिले
मैंने अपने हाथ में उसका हाथ लिया
उसने अपनी बाँह में मेरी बाँह डाली
और हम दोनों एक सैंसर की तरह हंसे
और काग़ज़ को एक ठंडे मेज़ पर रखकर
उस सारी नज्म पर लकीर फेर दी