देश सेवा की जब बात आती है तो कई उदाहरण सामने आ जाते हैं। भले ही वह कोई छोटा बच्चा हो या कोई बुढ़ा, हर कोई देश सेवा में लीन हो जाता है। जब बात देश की आती है तो हर ओर भारत माता की जय , जय हिन्द, वन्दे मातरम्, इंकलाब जिंदाबाद जैसे नारों की गुंज सुनाई देती है।
26 जुलाई को कारगिल विजय दिवस के तौर पर हर कोई जानता है। हर वर्ष कारगिल युद्ध में अपने आप को कुर्बान करने वाले सेनानियों को याद किया जाता है। उनके बलिदान से देश सुरक्षित है। कारगिल विजय दिवस के दिन सरकार शहीदों के लिए सोशल मीडिया पर बड़े लम्बे चौड़े पोस्ट करते हैं। जनता के सामने भाषण देते हैं। लेकिन असलियत तो कुछ और ही है। सच्चाई यह है कि भारत माँ के लिए जान देने वाले वीर सपूतों की याद में लगाए गए शिलापट या उनके पुतलों की हालात तो एक दम बदहाल हैं। कई स्थान पर तो शिलापट की मौजूदगी ही नहीं दिखाई देती।
कारगिल युद्ध के समय की तत्कालीन सरकार ने कई सड़कों को शहीदों का नाम दिया था। जिनमें कुछ नाम हैं बल्लीवाला चौक, बल्लूपुर चौक. न्यू कैंट रोड, चांदमारी, तुनवाला चौक, श्यामपुर या प्रेमनगर, तेलूपुर, नेहरुग्राम, कैनाल रोड आदि।
इन सड़कों के नाम के लिए सड़क किनारे संगरमरमर के शिलापट लगाए गए तो थे लेकिन अब कई स्थानों के शिलापट का कुछ अता पता ही नहीं है। देश की राजधानी में भी शायद ही कोई मार्ग हो जिसका नाम किसी कारगिल शहीद के नाम से दिया गया हो। सरकारी फाइलों को भी जाँचे तब भी आपको पुराने नाम ही मिलेंगे।
कारगिल के युद्ध में जीत हासिल किए हुए बीस साल बीत गए। इस युद्ध में 527 जवानों ने अपनी जान धरती माँ के लिए न्योछावर कर दी, तो वहीं 1363 जवान लहुलुहान हो गए। सेना का सर्वोच्च पदक हासिल करने वाले चार भारतीय जवान थे, जिन्होंने इस युद्ध में अदम्य साहस दिखाया। इनमें से यह पदक दो जवानों को मरणोपरांत मिला, और दो जवान आज भी हमारे बीच में शामिल हैं। इस पदक को हासिल करने वाले सबसे कम उम्र के जवान ग्रेनेडियर योगेंद्र हैं।
अगर इन जवानों की कहानी सुनें तो सभी के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उस समय शहीद सैनिकों के लिए तत्कालीन केंद्र सरकार और राज्य सरकार ने कई घोषणाएं की। इनमें से केंद्र सरकार द्वारा की गई घोषणाएँ तो पूरी कर दी गई, लेकिन राज्य सरकार द्वारा की गई घोषणाएँ न जाने कब पूरी होंगी।