Nowadays Lifestyle: चार दोस्त मिले और छिड़ गए किस्से बचपन के, फिर हुआ एहसास कि रूपये और कामयाबी के चक्कर में हम तो जीना ही भूल गए। आज रूपये हैं, गाड़ी हैं, घर हैं, लेकिन खुशियाँ वो लापता हैं। हम क्यों कमाते हैं इसलिए की अपने लिए खुशियाँ हासिल कर सकें लेकिन यह रूपये तो ले आए हमें हमारी ज़िन्दगी से ही दूर।
यक़ीन नहीं हो रहा तो गौर फरमाएँ इन बातों पर…
जॉइंट फैमिली तो छोड़ो माँ बाप से भी हुए दूर….
कहते हैं, इंसान वहीं होता हैं, जो वक़्त के साथ खुद को बदले। हम ने भी खुद को वक़्त के साथ ढाल लिया। जॉइंट फैमिली से अब फैमिली का हिस्सा बस माँ पापा और बहन रह गए। साथ रहने वाले दादा दादी, चाचा चाची, अब फैमिली नहीं बल्कि रिलेटिव बन गए और उनके बच्चे अब भाई बहन नहीं बल्कि कजिन बन गए।
यहाँ तक तो हजम कर लिया लेकिन बात दिल को तब चुभी जब एहसास हुआ कि अब इस नौकरी और पढाई के चक्कर में माँ- बाप भी सात समुन्दर पार रहने लगे। रूपये और करियर के लिए अब हमारी फैमिली और हम अलग देश या शहर में रहने लगे।
रूपये की अहमियत तो पता हैं, लेकिन क्या की फैमिली की अहमियत पता हैं?
संडे अब नहीं रहा फन डे….
ज़माना महंगाई का हैं, और इस महंगाई के चक्कर में हम ऐसे पीसे हैं कि खुद को ही भूल बैठे हैं। क्योंकि कितना भी कमा लो जरुरतें पूरी नहीं होती, तो उन जरूरतों को पूरा करने के लिए अब हम 9 से 5 कि जाने वाली नौकरी के बाद एक्स्ट्रा काम भी ढूँढ लेते हैं। जिसे फ्रीलांस (Freelance) वर्क कहते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि इस फ्रीलांस वर्क से हमें काफी मदद मिलती हैं। लेकिन इसकी वजह से हमें हमारा पर्सनल वक़्त भी गँवाना पड़ता हैं।
ऐसा इसलिए क्योंकि उस फ्रीलांस वर्क को हम ऑफिस के बाद या जिस दिन ऑफिस का ऑफ होता हैं। उस दिन करते हैं। यानि की छुट्टी के बाद और छुट्टी वाले दिन भी हम काम में लगे रहते हैं। जबकि पहले यह यह वक़्त हमारा एंजॉयमेंट और फैमिली फ्रेंड्स का वक़्त हुआ करता था। लेकिन अब या तो नींद पूरी करो या तो काम करो।
तो सवाल हैं, कि रूपये तो कमा लें लेकिन अपने लिए वक़्त कब निकालें?
पास रह कर भी हैं दूरी….
आजकल ना छोटी-छोटी उम्र में बच्चे बड़ी-बड़ी बीमारियों का शिकार हो रहें हैं। कोई डिप्रेशन में जा रहा हैं, तो कोई अजीब से बीमारी का शिकार हो रहा हैं। जिनकी वजह कहीं ना कहीं अकेलापन हैं। असल में, यह जो भागदौड़ है, ना इस भागदौड़ में हर कोई फँसा हैं। इसलिए हमारे पास इतना वक़्त भी नहीं होता कि घर में रहने वाले अपने भाई-बहन माँ-पापा, या अपने बच्चों के साथ वक्त बिता सकें।
पहले फैमिली जॉइंट हुआ करती थी। सब एक दूसरे के साथ इतना मस्ती मजाक करते थे, कि यह डिप्रेशन जैसी कोई बीमारी सुनने में ही नहीं आती थी क्योंकि कोई भी अपनी बात दिल में नहीं रखता था। हालांकि अब किसी के पास किसी की बात सुनाने का वक़्त ही नहीं हैं।
क्या कभी इस बात को ध्यान से सोचा कि बचपन में जिन माँ बाप की जरुरत हमें थी आज उन्हें भी हमारी हैं?
दोस्त सिर्फ कांटेक्ट लिस्ट में रह गए हैं
बचपन की ज़िन्दगी एक दम मस्त थी: “पल में दोस्तों से लड़ जाते और फिर उँगलियों से कट्टी पक्की कर हम सारी लड़ाई भूल वापस साथ खेलने लग जाते”… लेकिन अब इस नौकरी और अपने स्टेटस के मामले में ऐसे उलझे हैं, कि कॉन्टेक्ट लिस्ट में सेव उस दोस्त को मैसेज कैसे करें इस चक्कर में फँसे हैं।
जिनके घर बिना बुलाये पहुँच फ्रिज में रखा खाना खा जाते थे। आज उन्हें पहले मैसेज करने में हिचकिचाते हैं।
जिन दोस्तों के बिना हर खुशी अधूरी थी, क्या अब उन दोस्तों के बिना ज़िंदगी पूरी हैं?
रूपये से सामान तो मिल जाता हैं, लेकिन इमोशन कहीं छूट जाता है…
कई बार सुना हैं, कि बच्चा माँ-बाप के बुढ़ापे की लाठी होता हैं। माँ बाप की आरजू होती हैं, कि जिस बच्चे का हाथ पकड़ उससे चलना सिखाया वहीं बच्चा बुढ़ापे में उनका सहारा बनें, उनका हाथ थाम उन्हें चलने में मदद करें, लेकिन…. इस डिजिटल ज़माने में हम भी हर चीज़ को डिजिटल करना चाहते हैं।
जैसे कि अब मम्मी के घुटनों में दर्द होने पर मालिश नहीं करते बल्कि मसाज मशीन ला कर दे देते हैं। जब मम्मी या पापा बीमार होते हैं, तो उनके साथ वक़्त बिताने की जगह मैड या नर्स का इंतज़ाम कर देते हैं।
लेकिन भूल जाते हैं, कि इन चीज़ों से हम अपने माँ बाप को सुविधा तो दे देते हैं, लेकिन इमोशन वो अपनापन नहीं दे पाते।
सोशल रिलेशन का मतलब बन चुका हैं- “सोशल मीडिया”
खैर इस सारी चीज़ों में उलझने के बाद भी हम अपने लिए आखिर में थोड़ा बहुत वक़्त निकाल ही लेते हैं। लेकिन उस वक़्त में हम करते क्या हैं? बता दूँ उस वक़्त में हम अपनी नई दुनिया डिजिटल वर्ल्ड यानि सोशल मीडिया की दुनिया में खो जाते हैं।
वहाँ दोस्त को मीम में टैग करना याद रहता हैं। फैमिली व्हाट्सअप ग्रुप में एक दो जोक भी भेज देते हैं, और साथ ही बगल वाली आंटी के बच्चे कहाँ घूम रहें हैं इसकी खबर भी ले लेते हैं। लेकिन बगल वाले कमरे में बैठी बहन की ज़िन्दगी में क्या चल रहा हैं यह पूछना भूल जाते हैं।
पहले जहाँ खाने के टेबल पर किस्से कहानियाँ छिड़ जाती थी, और अब खाना ठंडा हो जाता हैं, हम बगल वाली कुर्सी पर बैठी बहन से यह नहीं कहते कि देख मम्मी ने मेरे पसंद का खाना बनाया हैं। बल्कि कोसों दूर बैठे दोस्त को खाने के लिए जरुर आमंत्रित करते हैं।
कभी एहसास हुआ कि वर्चुअल वर्ल्ड में अपडेट रहने में हम इतने व्यस्त हैं, कि रियल वर्ल्ड में क्या चल रहा हैं इससे अनजान हैं?
यह बातें सबूत हैं, कि हम अपनी ज़िंदगी में बहुत कुछ पा रहें हैं, लेकिन उन चीज़ों को पाने की कीमत काफी महँगी चुका रहें हैं।