Best Nostalgic memories: मिल बैठे चार यार फिर क्या छिड़ गए किस्से उन दिनों के जिनका ज़िक्र होते ही एक पल में आँखों के सामने आ गए वो लम्हें जो ज़िन्दगी के सबसे हसीन लम्हें थे, जिन्हें याद कर आंखें नम हुई और हर किसी ने यही बोला की- अरे यार वो भी क्या दिन थे!
हालांकि हम सभी की बचपन वाली यादें थोड़ी थोड़ी अलग होती हैं, लेकिन एक पॉइंट पर जाकर हम सभी यहीं कहते हैं, की अरे हाँ भाई तू सही कह रहा हैं वो दिन ही अलग थे।
तो चलिए आज उन्ही भूली बिसरी यादों को फिर से ताज़ा करते हैं, और उन यादों को ताज़ा करने में मदद करेंगी यह बातें जो हमारे बचपन का एक खास हिस्सा रही हैं। इनकी तस्वीर या इनका हल्का-फुल्का ज़िक्र भी हमें बचपन के उन्हीं सुनहरे पल में वापस लेके चला जाता हैं।
वीसीआर के आगे हर मूवी हॉल फेल
शनिवार की वो रात और गली का हर सदस्य लगभग एक साथ…. आज शनिवार का मतलब होता हैं, क्लब जाकर पार्टी करना, दोस्तों के साथ मूवी देखने चले जाना या फिर छोड़ो यार आराम करते हैं कह कर शनिवार निकाल देते हैं। लेकिन पहले शनिवार का मतलब किसी फेस्टिवल से कम नहीं होता था। शनिवार का मतलब सिर्फ स्कूल से छुट्टी नहीं बल्कि मम्मी पापा की डांट से छुट्टी का दिन हुआ करता था, और रात को सबकी एकजुट होने वाली एक्सकिटमेंट का कोई मुकाबला ही नहीं।
असल में, अगले दिन हर किसी की छुट्टी थी और क्योंकि सबके घर में टीवी नहीं होती थी मोहल्ले में एक दो घर होते थे जिनके घर टीवी और वीसीआर हुआ करता था, और शनिवार रात वही टीवी और वीसीआर घर से बाहर गली में आ जाता था, और बस हम सभी मिल कर अपना एक अलग ही थिएटर चलाया करते थे। इस पल की सबसे खास बात हुआ करती थी की यह पल सिर्फ वीसीआर और टीवी नहीं बल्कि पूरे मोहल्ले को आपस में जोड़ देता था ।
एक DVD और फिल्में 5
ना थिएटर जाके मूवी देखने के जेब में रुपय थे, ना तब हम इतने एडवांस हुआ करते थे। लेकिन हाँ, फिल्में देखने के शौक़ीन बचपन से थे। तब बाजार या दुकान में एक डीवीडी बिका करती थी जिसमें 5 फिल्में हुआ करती थी। ये डीवीडी किराये पर भी मिला करती थी। इस डीवीडी में लगभग सभी लेटेस्ट फिल्में मिल जाती थी, और बस फिर क्या मौका मिलते ही हम कर देते हाउसफुल।
सलमान की तेरे नाम फिल्म नहीं ज़ज़्बात थी….
फिल्में तो बहुत सी हैं, जिनकी कहनियाँ दिल को छू जाती हैं, लेकिन भाई जान की फिल्म तेरे नाम सिर्फ फिल्म नहीं बल्कि उस दौर में नौजवानों के लिए ज़ज़्बात थी। यह वो फिल्म थी जिसने मोहल्ले वाले चिंटू जिसे प्यार का मतलब भी सही से शायद ना पता था, उसे भी राधे बना दिया था।
खैर इस फिल्म ने नाई की दुकान की कमाई बढ़ा दी थी, क्योंकि छोटे बच्चे से लेकर बड़े तक ज़्यादतर लोगों का हेयर स्टाइल राधे जैसा हो चुका था। अरे, दुकान में तो हेयर कट का नाम तेरे नाम तय हो चुका था, और हम ऑटो वाले भैया को कैसे भूल सकते हैं, जिनके ऑटो में पूरे दिन तेरे नाम का ही गाना बजा करता था।
क्रिकेट हमेशा से रहा है, पहला प्यार…..
क्रिकेट का भूत आज भी हम सभी के अंदर घुसा हुआ हैं, यह प्यार आज का नहीं बल्कि तब का हैं, जब हमने शायद ठीक से बोलना भी नहीं सीखा था। मम्मी बाजार जाती तो उन्हें प्लास्टिक वाला बैट लाने को कहते और उसी प्लास्टिक के बैट से घर में खेलते खेलते इतने बड़े हो गए की हाथ में लकड़ी वाला बैट आ गया और हम गली-मोहल्ले के सचिन तेंदुलकर बन गए। बनते भी क्यों ना हमारा मैच जब होता तो शोर सुन सब इकट्ठा हो जाते क्या पड़ोस वाली आंटी, क्या मम्मी हमारे छक्के चौके पर गली से निकल रहा अजनबी भी कई बार ताली बजाता।
एल्बम की जगह मोबाइल गैलरी ने ले ली….
आज हम जब चाहे तब किसी भी चीज़ को कैमरे में कैद कर लेते हैं। लेकिन 90 के दशक में ऐसा नहीं था, तब त्यौहार या किसी खास मौके पर कैमरा मैन बुलाया जाता था, जो की सभी की फोटो अजीब-अजीब पोज़ में क्लिक करता था। तब जब सभी रिश्तेदार एकजुट होते तो हम उसी एल्बम की फोटोज़ दिखा खुश हुआ करते थे। यादें ताज़ा क्या करते थे। अपने उस अज़ीबों गरीब फोटो पोज़ को देख हालांकि अब हसते हैं, लेकिन तब खुद को शाहरुख-काजोल से कम नहीं समझते थे।
बहरहाल अब दादी-मम्मी के पास वो एल्बम तो मिलता हैं, लेकिन हमारे आने वाले फ्यूचर को क्या ऐसा कोई अपनी बड़ो की निशानी मिलेगी?